राष्ट्रवादी विचारक को राष्ट्रभक्तों का अंतिम प्रणाम
- विजय शंकर वाजपेयी सरीखे विप्लवी व्यक्तित्व ने 'काल' के समक्ष इतना शांत और मौन समर्पण इतनी सहजता के साथ कैसे कर दिया? यह प्रश्न जीवन भर विचलित करता रहेगा। संयोग से उनके जीवन के अत्यंत विषम और कठिन दौर में उनके घनिष्ठ सम्पर्क उनके असीम स्नेह के वटवृक्ष की विलक्षण छाया का परम सौभाग्य प्राप्त करने वाले कुछ सौभाग्य शाली पत्रकार पथिकों में से एक मैं भी रहा हूं। राष्ट्रप्रेम की प्रचण्ड आग में दहकते उनके असाधारण व्यक्तित्व में सिमटा उनका अपार सौन्दर्य उनके अर्न्त की अग्नि से सदा दमकता रहता था। व्यक्ति को आरपार भेद जाने वाली उनका तीखी दृष्टि उनके भीतर सदा खौलते रहने वाले वैचारिक तेजाब का ही प्रतिनिधित्व करती थीं।
सच कहने, उस पर अड़े रहने और उसके लिए कोई भी मूल्य चुकाने को आतुर रहने की उनकी पूजनीय प्रवृत्ति के एक उदाहरण का उल्लेख यहां करना चाहूंगा। राष्ट्रद्रोहियों के खिलाफ 'विचार मीमांसा' द्वारा बरसाए जाने वाले कहर से तिलमिला उठे थे आतंकी विषधर। परिणाम स्वरूप उन्हें जून 2006 में सिमी की तरफ से एक पत्र मध्यप्रदेश के रतलाम जिले से भेजा गया था। इस पत्र में उन्हें सुधर जाने का सुझाव देते हुए स्पष्ट चेतावनी दी गई थी कि यदि सुधरे नहीं तो 6 दिसम्बर 2006 को तुम्हें मौत की नींद सुला दिया जाएगा॥ भोपाल के तत्कालीन जिला प्रशासन और पुलिस ने पत्र की गंभीरता को भांपते हुए उन्हें अपनी सुरक्षा संबंधी सावधानियां बरतने के रक्षात्मक उपायों की सूची थमाई थी। वाजपेयी जी ने इसका उत्तर दिया था 'विचार मीमांसा' के सितम्बर 2006 और अक्टूबर 2006 के अंकों की आवरण कथा स्वयं लिखकर। सितम्बर अंक की आवरण कथा का शीर्षक था 'शिखंडी सेक्युलरों शर्म करो' और अक्टूबर अंक की आवरण कथा जो पूरी तरह से 'सिमी' के देशद्रोही कारनामों को बेनकाब करती थी, उसका शीर्षक था ''कुचलो इन नागों के फन'' इसके बाद आया था 6 दिसम्बर 2006 का दिन। भोपाल पुलिस एवं प्रशासन के उच्चाधिकारियों, वाजपेयी जी के परिजनों तथा मेरे जैसे उनके अनुयायियों ने उनसे बार बार प्रार्थना की थी कि वह किसी अज्ञात स्थान पर चले जाएं। पुलिस ने इसके लिए विशेष व्यवस्था भी कर दी थी। लेकिन सारी प्रार्थनाएं व्यर्थ सिध्द हुईं। अपने यहां काम करने वाले नौकर तक को उन्होंने उसके गांव भेज दिया था। कार्यालय में किसी को नहीं रूकने दिया था पर स्वयं सारा दिन उसी कार्यालय और अपने आवास पर अकेले डटे रहे थे। हिमालय सरीखे ऐसे असाधारण आत्मबल वाले वाजपेयी जी के भीतर का पत्रकार किस हद तक संवेदनशील था, विशेषकर राष्ट्रीय मान सम्मान और उसके स्वाभिमान के प्रति, इसका भी एक अविस्मणीय अनुभव मुझे तब हुआ जब 2006 में नार्वे के राजकुमार के सामने केंद्र सरकार के मंत्री मणिशंकर अय्यर ने देश को भिखारी बताते हुए कटोरा फैलाकर उनसे भीख मांगने का 'कुकर्म' सार्वजनिक रूप से एक समारोह में कर डाला था। इस संदर्भ में जनसत्ता में प्रकाशित हुए समाचार को पढ़कर वाजपेयी जी उबल पड़े थे। भोपाल में विचार मीमांसा के कार्यालय के ऊपर वाली मंजिल पर ही उनका आवास था। अत: मुश्किल से केवल 5-10 मिनटों में ही वो कम से कम 50 बार सीढ़ियां चढ़े उतरे थे। अपनी बेचैनी और छटपराहट पर काबू नहींकर पा रहे थे। क्रोधावेश में उनका चेहरा लाल हो उठा था। लगभग गरजती हुई आवाज में उन्होंने मुझे आदेश दिया था कि 'इस हरामजादे' के कलुषित इतिहास, देशद्रोही चरित्र का हर पहलू ढूढ़ों, इसी के साथ इंटरनेट पर मौजूद हर उस सूचना को भी संकलित करने का आदेश उन्होंने दिया था जिसमें भारत की आत्मनिर्भरता, उसकी आर्थिक, वैज्ञानिक प्रगति, कृषि उत्पादन तथा अन्य अनेक उपब्लिधयों का वर्णन हो। इसके बाद रात दो बजे के करीब राष्ट्रवाद की वह अग्निशिखा, विजय शंकर वाजपेयी ने अपना वह संपादकीय लिखवाना शुरू किया था। राष्ट्रीय अस्मिता के ज्वालामुखी से निकल रहे दहकते लावे सरीखे उनके विचार धाराप्रवाह उनके मुख से निकल रहे थे। अग्निपुत्र सरीखे उन शब्दों को कागज पर आकार देने के अपने दायित्व का निर्वाह करते हुए मैं उस महाकाया के सम्मोहन के सागर में लगातार डूब-उतरा रहा था। लगभग दो घंटे तक चली इस राष्ट्रवादी वैचारिक महाभारत का समापन सूर्योदय के साथ ही हुआ था। अपने उस संपादकीय को वाजपेयी जी ने शीर्षक दिया था ''श्वान से भी अधिक निकृष्ट है मणि शंकर'' वाजपेयी जी के यह तेवर किसी की कृपा का परिणाम नहींथे। उनकी दुर्लभ पत्रकारीय सोच की कोख से ही उपजे थे यह तेवर। अपने विप्लवी व्यक्तित्व और विचारधारा के कारण अपने मित्रों के साथ ही साथ भोपाल में अपने आलोचकों के बीच भी उन्हें 'सुनामी' उपनाम से ही याद किया जाता था। इसके लिए उन्होंने क्या और कैसा मूुल्य चुकाया होगा इसका अनुमान उनसे संबंधित केवल इस एक अन्य संस्मरण से ही हो जाता है। मार्च 2005 में प्रारम्भ हुए 'विचार मीमांसा' के पुर्नप्रकाशन के साथ ही उन्होंने मुझे उत्तर प्रदेश के ब्यूरो प्रमुख का दायित्व सौंपा था, वह भी इस स्पष्ट आदेश के साथ कि पत्रिका के विज्ञापन के लिए किसी राजनेता और नौकरशाह से कोई आग्रह या अनुरोध नहीं करोगे। इसके लिए उनकी कोई सहायता नहींलोगे। विचार मीमांसा चोरों, लुटेरों, भ्रष्टाचारियों, के सहयोग और उनकी सहायता से न पहले छपती थी, न अब छपेगी। उनका यह आदेश कोरा सैध्दान्तिक भाषण मात्र नहीं था। भीषण आर्थिक संकट के दौर की भंयकर कठिनाइयों के दौरान भी उनके इस सिध्दांत में किचिंत मात्र परिवर्तन नहींहुआ। इसके बावजूद अपनी पत्रकार सेना के प्रति इतने संवेदनशील रहे कि बीच में छह माह तक बाधित रहे विचार मीमांसा के प्रकाशन के बाद जब पुन: प्रकाशन प्रारम्भ किया तो पिछले छह महीनों का पूरा वेतन कुछ अग्रिम धनराशि के साथ देते समय क्षमा भी मांगी। उल्लेख कर दूं कि मासिक पत्रिका विचार मीमांसा के अपने पत्रकारों को जो वेतन वह देते थे संभवत: उतना वेतन बहुत से राष्ट्रीय समाचार पत्र भी अपने पत्रकारों को नहींदेते हैं।
जुलाई 2005 से वह नियमित रूप से मुझे प्रतिमाह भोपाल बुलाते थे, संपादकीय डेस्क पर भी कार्य करने के लिए। वरिष्ठ पत्रकार आदरणीय वशिष्ठमुनि ओझा जी के साथ। ओझा जी कविता प्रेमी थे अत: वाजपेयी जी के साथ उनकी काव्य गोष्ठी अक्सर लंबी खिंचती थी। उसी दौरान वाजपेयी जी के व्यक्तित्व का एक और विलक्षण पहलू मेरे समक्ष उजागर हुआ। जिसने यह स्पष्ट कर दिया कि वाजपेयी जी के रोम रोम में रची बसी निर्भीकता का अजर अमर स्रोत क्या है। ओझा जी के साथ उनकी काव्य चर्चा के दौरान ही वाजपेयी जी की ओजस्वी वाणी में राष्ट्रकवि दिनकर की कालजयी रचना 'रश्मिरथी' को सुनने का सौभाग्य अनेकों बार प्राप्त हुआ। दिनकर जी की रश्मिरथी उन्हें कठंस्थ थी। मुग्ध भावसे इसका पाठ वह जब तब करते रहते थे। लेकिन वाजपेयी जी के कविता प्रेम का उल्लेख करूं और उनके सर्वाधिक प्रिय कवि तथा उन्हें सर्वाधिक प्रिय रही कविता का उल्लेख नहीं करूं यह सम्भव नहीं है। गोपाल सिंह 'नेपाली' उनके सर्वाधिक प्रिय कवि थे और उनकी जो कविता वाजपेयी जी को सर्वाधिक प्रिय थी जिसे वह बार बार हम जैसे, अपने भक्तों को दिन दिन में कई कई बार सुनाते थे। उसी कविता को भड़ांस बोलो बिंदास के साथियों तक पहुंचाते हुए विशिष्ट विचार धारा वाले स्व. विजय शंकर वाजपेयी जी को अश्रुपूरित अंतिम प्रणाम
उन्हें सर्वाधिक प्रिय रही कविता:-
मेरा धन है स्वाधीन कलम
राजा बैठे सिंहासन पर, यह ताजों पर आसीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
जिसने तलवार शिवा को दी
रोशनी उधार दिवा को दी
पतवार थमा दी लहरों को
खंजर की धार हवा को दी
अग-जग के उसी विधाता ने, कर दी मेरे आधीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
रस-गंगा लहरा देती है
मस्ती-ध्वज फहरा देती है
चालीस करोड़ों की भोली
किस्मत पर पहरा देती है
संग्राम-क्रांति का बिगुल यही है, यही प्यार की बीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
कोई जनता को क्या लूटे
कोई दुखियों पर क्या टूटे
कोई भी लाख प्रचार करे
सच्चा बनकर झूठे-झूठे
अनमोल सत्य का रत्नहार, लाती चोरों से छीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
बस मेरे पास हृदय-भर है
यह भी जग को न्योछावर है
लिखता हूँ तो मेरे आगे
सारा ब्रह्मांड विषय-भर है
रँगती चलती संसार-पटी, यह सपनों की रंगीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
लिखता हूँ अपनी मर्ज़ी से
बचता हूँ कैंची-दर्ज़ी से
आदत न रही कुछ लिखने की
निंदा-वंदन खुदगर्ज़ी से
कोई छेड़े तो तन जाती, बन जाती है संगीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
तुझ-सा लहरों में बह लेता
तो मैं भी सत्ता गह लेता
ईमान बेचता चलता तो
मैं भी महलों में रह लेता
हर दिल पर झुकती चली मगर, आँसू वाली नमकीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम
सतीश मिश्र
टिप्पणियाँ
बचता हूँ कैंची-दर्ज़ी से
आदत न रही कुछ लिखने की
निंदा-वंदन खुदगर्ज़ी से
कोई छेड़े तो तन जाती, बन जाती है संगीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम.इतनी सुंदर रचना के लिए कोटिशः धन्यवाद ऐसे महा मानव को मेरी तरफ़ से भावभीनी श्रद्धान्जलि
behad damdaar vichar pad kar achchha laga .
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AAPKO DHANYAVAD . YAAD BANAYE RAKHNA ......BHEE KARTAVY HAI !
shukriya .
bahut khoob kavita hai .
aapaka lekhan mujhe hamesha aakarshit karta hai .
renu..
-जाकिर अली रजनीश
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SBAI / TSALIIM