स्वाधीनता रक्त बहाये बिना नहींआएगी

सतीश मिश्र

गांधी जी का असहयोग आंदोलन लोगों के मन को झकझोर रहा था। भगत सिंह नौवीं कक्षा में आ गए थे। उन्होंने निश्चय किया कि वे नहीं पढ़ेंगे। वे आंदोलन में हिस्सा लेंगे। उन्होंने स्कूल छोड़ दिया। वे जुलूस निकालते और विदेशी वस्त्रों की होली जलाते। लेकिन वे इस आंदोलन में कुछ कर पाते, इससे पहले ही एक घटना घट गई। 5 फरवरी 1922 को गोरखपुर जिले के चौरी-चोरा स्थान पर क्रुध्द आंदोलनकारियों ने 21 सिपाहियों और एक थानेदार को थाने में बंद करके आग लगा दी। सबके सब जलकर मर गए। इस घटना के बाद गांधी जी ने आंदोलन वापस लेने की घोषणा की। पूरा देश स्तब्ध रह गया। भगत सिंह के किशोर मन में इस घटना की तीव्र प्रतिक्रिया हुई, उनके मन में कई गंभीर प्रश्न उठ खड़े हुए। सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न था हिंसा और अहिंसा का। उनको लगा कि गांधी जी के लिए अंहिसा का महत्व स्वाधीनता से भी ज्यादा है। कुछ कांस्टेबल उत्तेजित जनता के हाथों जल मरे। उससे क्या हुआ? इससे ही क्या भारतवर्ष की आजादी के आंदोलन के बंद कर देना होगा? इतने विराट देश की मुक्ति के संग्राम में क्या रक्तपात नहीं होगा? उन्हें याद थी सरदार करतार सिंह सराभा की, जिन्होंने फांसी की सजा सुनकर जज से कहा था, थैक्यू। क्या यह साहस असत्य था। क्योंकि वह हिंसा के मार्ग से आया था। गांधी जी की अहिंसा ही सत्य है। उनके मन को लगा कि अंग्रेजों को देश से निकलना है, किसी भी तरह, किसी भी शर्त पर, उसमें हिंसा ही क्यों न स्वीकार करनी पड़े। आखिर स्वतंत्रता के लिए रक्त तो बहाना ही पड़ेगा।

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