ऐसे सपूत पर सैकड़ों राष्ट्रपिता न्योछावर



भगत सिंह की शहादत के बावजूद आज भी उनका नाम करोडाें हिन्दुस्तानियों की रगों में देशभक्ति के रक्त को संचारित और दिलों में जोशो-खरोश भरने का काम करता है। देश के सच्चे सपूत ने शहादत से देशभक्ति की वो ज्वाला सुलगाई 
जिससे अं
ग्रेजी हुकूमत भस्म हो गई। भगत सिंह की फांसी क्रूर अंग्रेजों की जीत नहीं थी बल्कि उसे देशभक्त के आंदोलन की नैतिक जीत थी जो शहादत देकर क्रांति की ज्वाला जला गए। वो कतई नहीं चाहते थे कि उनकी फांसी रुके क्याेंकि उनका मानना था कि इससे क्रांतिकारी आंदोलन को नुकसान पहुंचेगा।
उन्हाेंने देश के लिए प्राण तो दिए पर किसी तथाकथित अंधे राष्ट्रवादी के रूप में नहीं बल्कि इसी भावना से कि उनके फांसी पर चढ़ने से आजादी की लड़ाई को लाभ मिलता। शहादत की मिसाल पेश करने में 
वे क्यूबा के क्रांतिकारी चे ग्वेरा के समकक्ष हैं, दोनाें ही दुनिया के लिए 
अलग तरह के उदाहरण छोड ग़ए।
वे युवाओं के बीच देशभर में खासे लोकप्रिय हो रहे थे। ब्रिटेन में भी उनके समर्थन में प्रदर्शन हुए थे। भगत सिंह की बढ़ती लोकप्रियता कांग्रेस को एक खतरे की तरह दिखाई देती थी। भगत सिंह ने कभी नहीं चाहा कि उनकी फांसी रोकने का श्रेय गांधी को मिले।
गांधी कभी नहीं चाहते थे कि हिंसक क्रांतिकारी आंदोलन की ताकत बढ़े और भगत सिंह को इतनी लोकप्रियता मिले। गांधी क्रांतिकारी आंदोलन को रोक पाने में अपने को असमर्थ महसूस कर रहे थे। इस मामले में गांधी और अंग्रेजी हुक्मरानों का एक जैसा सोचना था।  गांधी और इरविन के बीच बातचीत हुई। कितना दुर्भाग्य है कि दोनों इस बात पर समझौता कर रहे थे कि कि कौन भगत सिंह के आंदोलन का कितना विरोध करेगा। दोनाें ने इस बात पर सहमति जताई कि क्रांतिकारियों को बल नहीं मिलना चाहिए। मतभेद केवल इस बात को लेकर था कि इरविन के मुताबिक फांसी न देने से इस प्रवृत्ति को बल मिलता और गांधी कह रहे थे कि फांसी दी तो इस प्रवृत्ति को बल मिलेगा।
गांधी ने कभी भगत सिंह की फांसी टलवाने के लिए जोर नहीं दिया। अपने पत्र में केवल गांधी ने यह ही लिखा कि भगत सिंह 
को फांसी न दी जाए तो अच्छा है।  गांधी यह तर्क भावनात्मक या वैचारिक रूप से कभी नहीं दिया कि फांसी पूरी तरह से गलत है।
कांग्रेस के अंदरुनी दबाव के बावजूद गांधी ने इरविन के साथ 5 मार्च, 1931 को हुए समझौते में भी इस फांसी को टालने की शर्त शामिल नहीं की। अगर यह समझौता राष्ट्रीय आंदोलन के हित में हो रहा था तो क्या गांधी भगत सिंह के संघर्ष को राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा नहीं मानते थे?
कांग्रेस के अंदरुनी दबाव के बावजूद गांधी ने इरविन के साथ 5 मार्च, 1931 को हुए समझौते में भी इस फांसी को टालने की शर्त शामिल नहीं की। अगर यह समझौता राष्ट्रीय आंदोलन के हित में हो रहा था तो क्या गांधी भगत सिंह के संघर्ष को राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा नहीं मानते थे?
गांधी के एक और झूठ का पर्दा तब फाश हुआ जब बातचीत के दौरान उन्होंने इरविन से यह भी कहा था कि अगर इन युवकाें की फांसी माफ कर दी जाएगी तो इन्हाेंने मुझसे वादा किया है कि ये भविष्य में कभी हिंसा का रास्ता नहीं अपनाएंगे। गांधी के इस कथन का भगत सिंह ने पूरी तरह से खंडन किया था।
भगत सिंह हंसते-हंसते फांसी पर चढ ग़ए। उनकी शहादत जहां कांतिकारियों के विरोधियों की हार साबित हुई वहीं उनके शरीर से निकले कतरे-कतरे से हजारों क्रांतिकारियों की नई पौध उग आई।








  •   इन्द्र सिंह थापा

टिप्पणियाँ

बेनामी ने कहा…
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