संदेश

संदीप उपाध्‍याय: केजरीवाल की सफलता का पाठ पढ़ाती पुस्तकब्रह्मानंद दे...

संदीप उपाध्‍याय: केजरीवाल की सफलता का पाठ पढ़ाती पुस्तकब्रह्मानंद दे... : केजरीवाल की सफलता का पाठ पढ़ाती पुस्तक ब्रह्मानंद देवरानी शिमला. जीवन िकतना भी चुनौतीपूर्ण क्यों न हो यदि लक्ष्य सही हो तो वहां तक प...
फ़ॉन्ट कन्वर्टर अब नए साइट से डाउनलोड/प्रयोग करें गूगल अपने समूहों से फ़ाइलों की होस्टिंग खत्म कर रहा है. गूगल तकनीकी हिंदी समूह में बहुत सी काम की फ़ाइलें हैं. गूगल तकनीकी हिंदी समूह के फ़ॉन्ट कन्वर्टरों व दीगर फ़ाइलों को अभी तदर्थ रूप में गूगल डाक्स में होस्ट किया गया है. गूगल तकनीकी हिंदी समूह की सभी फ़ाइलें आप यहाँ पर देख सकते हैं व वहीं से डाउनलोड भी कर सकते हैं. यदि आप चाहें तो नीचे दी गई कड़ियों में संबंधित फ़ॉन्ट पर क्लिक कर संबंधित फ़ॉन्ट-कन्वर्टरों का सीधे प्रयोग भी कर सकते हैं. इस हेतु इस पृष्ठ को बुकमार्क कर लें व इसकी कड़ी मित्रों को भेजें तथा जब आवश्यक हो फ़ाइलें डाउनलोड करने अथवा आनलाइन फ़ॉन्ट कन्वर्शन हेतु प्रयोग में लें. इन फ़ॉन्ट कन्वर्टरों को गूगल तकनीकी हिंदी समूह के श्री अनुनाद व श्री नारायण प्रसाद ने तैयार किया है. इन्हें धन्यवाद. पुराने फ़ॉन्टों से यूनिकोड फ़ॉन्ट कन्वर्टर: (फ़ॉन्ट कन्वर्शन के लिए संबंधित फ़ॉन्ट नाम के ऊपर क्लिक करें -) कन्वर्टरों की सीधे डाउनलोड कड़ियों के लिए यहाँ क्लिक करें यूनिकोड से कृतिदेव कन्वर्टर 010 Unicode-to-krutidev010 converter05.

बस प्यार नहीं खरीदा जा सकता

अथाह संपत्ति होने के बाद भी हम अपने दिवंगत परिजन के लिए जीवन खरीदना तो दूर परिवार के दो सदस्यों के बीच समाप्त हुआ प्यार तक नहीं खरीद सकते। फिर ऐसे पैसे की अंधी दौड़ भी किस काम की जो भाइयों में दीवार खड़ी कर दे, एक दूसरे के खून का प्यासाबना दे। और हम अपने बुजुर्गों से विरासत में मिले संस्कारों को भी भुला दे।

दर्द बढ़ाने के लिए ना जाएं

अस्पताल मे दाखिल अपने किसी परिचित को हम जाते तो हैं यह अहसास कराने के लिए कि इस संकट में हम आपके साथ हैं। इसके विपरीत अंजाने में ही हम अपने अधकचरे मेडिकल नालेज को इस तरह बयां करते हैं कि इलाज करने वाले डाक्टरों की टीम से मरीज के परिजनों का विश्वास उठने लगता है। इसके विपरीत एक अन्य मित्र हैं, जितनी देर मरीज के पास बैठते हैं हल्के-फुल्के मजाक से कुछ देर के लिए ही सही मरीज की सारी उदासी ठहाकों में बदल देते हैं। हमारे एक दोस्त की माताजी आईजीएमसी अस्पताल मे दाखिल थीं। सूचना मिली तो हम भी उनकी मिजाजपुर्सी के लिए चले गए। करीब आधा घंटा वहां रुकने के दौरान मेरे लिए सीखने की बात यह थी कि वे डाक्टरों द्वारा दिए जा रहे उपचार से पूर्ण संतुष्ट दिखे शायद यही कारण था कि मां के स्वास्थ्य को लेकर अनावश्यक रूप से चिंतित भी नहीं थे। उनका तर्क सही भी था चिंता करने से तो मां ठीक होने से रही। हमने भी माताजी की बीमारी को लेकर अपना अधकचरा ज्ञान नहीं बघारा। जितने वक्त वहां बैठे, हम उनके साथ इधर उधर की बातें करते रहे। सुबह से रात तक अकेले ही मां की सेवा में लगे रहने के साथ अस्पताल से ही आफिस के अपने साथियों को

अच्छे सिर्फ बाहर के लिए ही क्यों

हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और। हमारा चरित्र भी कुछ ऐसा ही हो गया है। हम अन्य शहरों में जब सपरिवार जाते हैं तो पत्नी बच्चों के साथ हमारा व्यवहार बदल जाता है। हम खुद को उस शहर के मुताबिक ढालने का भी प्रयास करते हैं लेकिन जैसे ही अपने शहर की सीमा में प्रवेश करते हैं, फिर पुराने वाले हो जाते हैं। हम अच्छाइयां स्वीकार भी करते हैं तो अपनी सुविधा से लेकिन बुराइयां आसानी से और हमेशा के लिए पालन करने लग जाते है। दो दिन की लगातार बारिश के बाद जैसे ही मौसम खुला शिमला में रंगीन छतरियों की रौनक के बदले माल रोड पर सैलानियों की चहल पहल नजर आने लगी। नगर निगम भवन के सामने माल रोड पर एक दुकान से अपने बच्चों के लिए पिता ने नाश्ते का सामान लिया और बच्चों के हाथ में प्लेट पकड़ा दी। ये सभी खाते-खाते आगे बढ़ गए। उनमें से एक बच्चे ने सबसे पहले नाश्ता खत्म किया और खाली प्लेट सड़क पर उछाल दी। कुछ आगे जाने पर पिता को ध्यान आया कि बेटे ने जूठी प्लेट सड़क पर ही फेंक दी है। बच्चों को वहीं रुकने की समझाइश देकर पिता पीछे लौटे और सड़क से प्लेट उठाकर एमसी भवन के बाहर सड़क किनारे रखे डस्टबीन में डाल दी। वापस

काम तो अपने ही आएंगे,पैसा नहीं

ऐसा क्यों होता है कि साया भी जब हमारा साथ छोड़ जाता है तभी हमें अपनों की कमी महसूस होती है। शायद इसीलिए कि जब ये सब हमारे साथ होते हैं तब हमें इनकी अहमियत का अहसास नहीं होता। विशेषकर राजनीति में अपने नेता के लिए रातदिन एक करने वाले तब ठगे से रह जाते हैं कि लाल बत्ती का सुख मिलते ही नेता अपने ऐसे ही सारे कार्यकर्ताओं को भूल जाता है। सुख-दु:ख के बादल उमड़ते घुमड़ते रहते हैं लेकिन छाते की तरह खुद को भिगोकर हमें बचाने वाले अपने लोगों के त्याग को हम अपने प्रभाव के आगे कुछ समझते ही नहीं। ऐसे ही कारणों से हमें बाद में पछताना भी पड़ता है। माल रोड की ओर से आ रहे अधेड़ उम्र के एक व्यक्ति मुझ से टकरा गए। कुछ गर्मी का असर और कुछ उनकी लडख़ड़ाती चाल, मैंने ही सॉरी कहना ठीक समझा। बदले में वो ओके-ओके कहकर ठिठक गए तो मुझे भी रुकना ही पड़ा। फिर करीब पंद्रह मिनट वो अंग्रेजी-हिंदी में अपना दर्द सुनाते रहे कि दिल्ली में रह रहे पत्नी बच्चों से कई बार फोन पर कह चुका हूं शिमला आ जाओ, आजकल करते-करते छह महीने निकाल दिए। कमरा लेकर अकेले रह रहे उन सज्जन की बातों से यह भी आभास हुआ कि पति पत्नी में कुछ अनबन चल रही

जो नहीं मिला उसका ज्यादा दुख

हम अपने घर की हालत तो सुधार नहीं पाते मगर दूसरों के अस्त-व्यस्त घरों को लेकर टीका टिप्पणी करने से नहीं चूकते। हमारा स्वभाव कुछ ऐसा हो गया है कि पड़ोसी का सुख तो हमसे देखा नहीं जाता। उसके दुख में ढाढस बंधाने के बदले सूई में नमक लगाकर उसके घावों को कुरेदने में हमेशा उतावले रहते हैं। जब पुरानी संदूकों के ताले खोले जाते हैं तो सामान उथल-पुथल करते वक्त ढेर सारे नए खिलौने भी हाथ में आ जाते हैं। तब याद आती है कि घूमने गए थे तब ये तो बच्चों के लिए खरीदे थे। उन्हें खेलने के लिए सिर्फ इसलिए नहीं दिए कि एक बार में ही तोड़ डालेंंगे। अब खिलौने हाथ आए भी तो तब, जब उन बच्चों के भी बच्चे हो गए, और इन बच्चों के लिए लकड़ी और मिट्टी के खिलौने इस जमाने में किसी काम के नहीं हैं। उन्हें इससे भी कोई मतलब नहीं कि इन छोटे-छोटे खिलौनों में दादा-दादी का प्यार छुपा है। अब हम इस बात से दुखी भी हों तो इन बच्चों क ो कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उनके लिए अपना सुख ज्यादा मायने रखता है। ऐसे में कई बुजुर्ग कलपते हुए प्रायश्चित भरे लहजे में स्वीकारते भी हैं कि उसी वक्त हमारे बच्चों को खेलने के लिए दे देते तो ज्यादा अच्छ