करार वार

इन्द्र सिंह थापा

दिल और जुबान की जुगलबंदी जब बिगडी तो समझिए मुसीबत आ गई। बंगाल में दिल और दिमाग दिल्ली रखने वाले कब तक खुद को और किसी और को समझाते? जिस नाते की नीव ही निहित स्वार्थों के लिए कुछ बरस पहले पडी थी उसे तो ढहना ही था। वाम-कांग्रेस के 'तलाक' से अगर पूरा परिवार भी टूट जाए तो अनापेक्षित कुछ नहीं होगा।

वामपंथी अपना दिल बंगाल में लगाए बैठे हैं इसलिए कई दर्द भी सीने में हैं। विडम्बना यह है कि उस दर्द का कारण भी दिल्ली है और उस दर्द की दवा भी दिल्ली है। वामपंथी जिस बंगाल व केरल में अपनी हेकडी दिखाते हैं वहां उनका प्रतिद्वंद्वी कौन है? 'दुश्मनी' और 'दोस्ती' की इस धूप-छांव में कांग्रेस-वामपंथियों ने चार साल तक मुश्किल व मजबूरी में तारतम्य बिठाया। सत्ता के नजदीक होने का सुख कुछ सालों भोगने के बाद कामरेड जमात को फिर अपने वोटर नजर आने लगे। अगर वे कांग्रेस से नाता न तोडते तो किस मुंह व मुद्दे से केरल व बंगाल में वोट मांगते? चूंकि वहां उन्हें चुनाव कांग्रेस के खिलाफ ही लडना था इसलिए सरकार की नीतियों के वे लगातार निंदक बने रहे। महंगाई व परमाणु करार को बहाना बनाकर लगातार सरकार के खिलाफ तल्ख टिप्पणियां कीं। पैट्रोल व डीजल के दाम बढाए जाने पर भी वे लगातार सरकार को धमकाते रहे।
लाल बिग्रेड अपने चिर राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी से यह तर्क देकर हाथ मिलाती रही है कि वे कट्टर हिन्दूवादी ताकतों को सत्ता से दूर रखना चाहते हैं। वे हर बार अपने मतदाता से झूठ कैसे बोलेंगे? बंगाल तथा केरल में मुंह भरकर कांग्रेस को गरियाने वाले जब दिल्ली में गलबहियां करते दिखते हैं तो क्या उनके दोहरे चरित्र को जनता जनार्दन पचा पाएगी? वाम कार्यकर्ता जिन्होंने अथक मेहनत से दशकों से कांग्रेस को जमने नहीं दिया। क्या वो यह सब पचा पा रहा होगा। मुखौटा राजनीति करने वाले वामपंथी नेता अपने उन कार्यकर्ताओं को कैसे समझाएंगे जो अपने अस्तिव के लिए कांग्रेस से दो-दो हाथ करते हैं।
चुनावी मैदान में लेफ्ट को कांग्रेसी पहलवान से लडना है। उसे पटकनी भाजपा को कोस कर नहीं दी जा सकती। सरकार की नाकामियों को ऊर्जा बनाकर कार्यकर्ताओं में संचारित करनी होगी। परमाणु करार से लेकर उपभोक्ता वस्तुओं की आसमान छूती कीमतें और सरकार की असफलता को अस्त्र बनना उसकी मजबूरी है। वामपंथियों को अगर जनता की चिंता होती तो वे सरकार से पहले समर्थन वापस ले चुके होते। पिछले साल से सरकार के निर्णयों का विरोध महज इसलिए किया जा रहा था क्योंकि उन्हें अगले लोकसभा के चुनाव दिखाई दे रहे थे।
वे एक साल से जनता को मैसेज दे रहे थे कि वे उनके बहुत बडे हितैषी हैं। उपभोक्ता वस्तुओं से लेकर पैट्रोल, डीजल व रसोई गैस की कीमतें बढने पर भी सरकार को खूब खरी-खोटी सुनाई गई। अमरीका से परमाणु करार तो उन्हें सरकार से समर्थन वापस लेने का बहाना भर था। असल में सत्ता का मोह उन्हें आकर्षित करता रहता है। इसलिए वे ये बयान देने से कभी चूकते कि वे सांप्रदायिक ताकातों के खिलाफ हैं। इन्हें सत्ता से दूर रखने के लिए वे किसी को अछूत नहीं मानते। मतलब साफ है कि जब उन्हेें सत्ता सुख लेना होता है तो वे कांग्रेस के साथ होते हैं। जब उन्हें वोट लेने होते हैं तो उसकी जमकर बुराई करते हैं। 
विचारधारा से लेकर कांग्रेस की नीतियां तक वाम को सूट नहीं करती। तो क्यों वे उससे कोम्प्रोमाइज करते हैं? असल में उनके पास इतनी ताकत कभी नहीं थी कि वे 10 रेस कोर्स तक पहुंचते। चूकिं भाजपा उनसे कोसों दूर है इसलिए बेहतर है कि वे कांग्रेस के साथ मिलकर इस सुख का आनंद लें। उन्हें न जाने बंगाल और केरल में कांग्रेस क्यों अछूत लगती है जबकि दिल्ली में शरण उसी की लेनी पडती है। क्या असल में लाल बिग्रेड का कोई धर्म है, वे ही बेहतर बता सकते हैं?
बुजुर्ग आहत
वाम की यंग बिग्रेड ज्यादा शक्तिशाली हो गई है। नौजवान खून हमेशा अपने आसपास किसी दिग्गज को देखना ज्यादा गवारा नहीं करता। पुराने वामपंथी दिग्गज आज हाशिये पर धकेले जा चुके हैं। प्रकाश करात व सीता राम येचुरी का कद बढ ग़या है। सोमनाथ चटर्जी बेचारे वाले स्थिति में दिख रहे हैं। उन्हें कई बार लोकसभा अध्यक्ष पद छोडने के लिए कहा जा चुका है। लेकिन वे बता चुके हैं कि वे अभी पद नहीं छोडेंग़े। 22 जुलाई के बाद ही वे इस पर फैसला करेंगे। कामरेड सुरजीत काफी दिनों से बिस्तर पर हैं।

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