जिस फिल्म में कहानी ही नहीं हो आप उसे कैसी फिल्म कहेंगे? इस साल की सबसे चर्चित फिल्मों में से एक “ जाने तू या जाने ना” जैसी फिल्म को देख कर यकीन नहीं होता कि यह 2008 जैसे समय में बनी फिल्म है, यकीन नहीं होता कि आमिर खान ने बिना स्क्रिप्ट देखे फिल्म बनाने की हामी भरी होगी, यकीन नहीं होता कि अपने भांजे के लिए पहली ही फिल्म आमिर ने बिना कहानी के बनाने का फैसला किया होगा। जिस फिल्म में पहले पंद्रह मिनट नायिका की बिल्ली मर जाने की शोकसभा और उस पर गाना गाने में बीतें, जिस फिल्म में इंटरवल तक कोई कहानी ही नहीं हो और जिस फिल्म में इंटरवल के बाद नायक-नायिका के अलावा दुनिया भर के पात्रों की कहानियां बताई जाने लगें, उस फिल्म को आप कैसे आमिर खान प्रोडक्शन की फिल्म मान सकते हैं? फिल्म में हीरो-हीरोइनों के चार दोस्तों को उन दोनों को खुश देख कर खुश होने के सिवा कोई काम ही नहीं है (क्या “ सैड लाइफ” है), हीरो-हीरोइन की ज़िंदगी में खुश रहने के सिवा कोई काम नहीं है (पढ़ाई खत्म हो गई, नौकरी की किसी को याद भी नहीं आती, लगता है “कोमा” में चले गए हैं सभी)। ये कौन से जमाने की पीढ़ी है? (राजेन्द्र कुमार की?) फिल्...
सतीश मिश्र गांधी जी का असहयोग आंदोलन लोगों के मन को झकझोर रहा था। भगत सिंह नौवीं कक्षा में आ गए थे। उन्होंने निश्चय किया कि वे नहीं पढ़ेंगे। वे आंदोलन में हिस्सा लेंगे। उन्होंने स्कूल छोड़ दिया। वे जुलूस निकालते और विदेशी वस्त्रों की होली जलाते। लेकिन वे इस आंदोलन में कुछ कर पाते, इससे पहले ही एक घटना घट गई। 5 फरवरी 1922 को गोरखपुर जिले के चौरी-चोरा स्थान पर क्रुध्द आंदोलनकारियों ने 21 सिपाहियों और एक थानेदार को थाने में बंद करके आग लगा दी। सबके सब जलकर मर गए। इस घटना के बाद गांधी जी ने आंदोलन वापस लेने की घोषणा की। पूरा देश स्तब्ध रह गया। भगत सिंह के किशोर मन में इस घटना की तीव्र प्रतिक्रिया हुई, उनके मन में कई गंभीर प्रश्न उठ खड़े हुए। सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न था हिंसा और अहिंसा का। उनको लगा कि गांधी जी के लिए अंहिसा का महत्व स्वाधीनता से भी ज्यादा है। कुछ कांस्टेबल उत्तेजित जनता के हाथों जल मरे। उससे क्या हुआ? इससे ही क्या भारतवर्ष की आजादी के आंदोलन के बंद कर देना होगा? इतने विराट देश की मुक्ति के संग्राम में क्या रक्तपात नहीं होगा? उन्हें याद थी सरदार करतार सिंह सराभा की, जिन्होंने ...
राष्ट्रविरोधी जहर से पोषित हो रही हैं कश्मीर की नई-नवेली जडें -इन्द्र सिंह थापा केंद्र के नरम रुख, जम्मू की अनदेखी कर तुष्टिकरण व समझौतावादी नीति ने कश्मीर को अलगाव के रास्ते पर ला खडा कर दिया है। श्राइन बोर्ड को आबंटित 800 कनाल भूमि से कश्मीरियत को कोई खतरा नहीं था। भूमि हस्तांतरण का मसला इतना बडा नहीं था कि केंद्र व राज्य सरकार मुट्ठी भर लोगों के विरोध के आगे नतमस्तक होकर घुटने टेक देती। वोट बैंक के लिए कांग्रेस ने राष्ट्रहित को दांव पर लगा दिया। सरकार के झुक जाने से कश्मीर में फिर से अलगाव की बयार बहनी शुरू हो गई है। कश्मीर मसले पर मुसलमानों को नाराज न करने की नीति राष्ट्रीय एकता के लिए घातक सिध्द हो रही है, जिसके चलते कश्मीर विश्वविद्यालय में पढने वाले छात्रों के दिलों से राष्ट्र सम्मान व दिमाग से परीक्षा व प्रोफेसरों का डर निकल चुका है। इसी फेहरिस्त में कई छात्र अलगाव का बीज बोने में जुट गए हैं। सरकार द्वारा बाबा अमरनाथ यात्रा पर आने वाले श्रध्दालुओं की सुविधा के लिए बोर्ड को जो जमीन दी थी, जिसका पीडीपी ने विरोध किया। पाकिस्तानी टुकडाें पर पलने वाले अलगाववादी संगठनों ने भी खुलक...
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