जो नहीं मिला उसका ज्यादा दुख
हम अपने घर की हालत तो सुधार नहीं पाते मगर दूसरों के अस्त-व्यस्त घरों को लेकर टीका टिप्पणी करने से नहीं चूकते। हमारा स्वभाव कुछ ऐसा हो गया है कि पड़ोसी का सुख तो हमसे देखा नहीं जाता। उसके दुख में ढाढस बंधाने के बदले सूई में नमक लगाकर उसके घावों को कुरेदने में हमेशा उतावले रहते हैं। जब पुरानी संदूकों के ताले खोले जाते हैं तो सामान उथल-पुथल करते वक्त ढेर सारे नए खिलौने भी हाथ में आ जाते हैं। तब याद आती है कि घूमने गए थे तब ये तो बच्चों के लिए खरीदे थे। उन्हें खेलने के लिए सिर्फ इसलिए नहीं दिए कि एक बार में ही तोड़ डालेंंगे। अब खिलौने हाथ आए भी तो तब, जब उन बच्चों के भी बच्चे हो गए, और इन बच्चों के लिए लकड़ी और मिट्टी के खिलौने इस जमाने में किसी काम के नहीं हैं। उन्हें इससे भी कोई मतलब नहीं कि इन छोटे-छोटे खिलौनों में दादा-दादी का प्यार छुपा है। अब हम इस बात से दुखी भी हों तो इन बच्चों क ो कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उनके लिए अपना सुख ज्यादा मायने रखता है। ऐसे में कई बुजुर्ग कलपते हुए प्रायश्चित भरे लहजे में स्वीकारते भी हैं कि उसी वक्त हमारे बच्चों को खेलने के लिए दे देते तो ज्यादा अच्छ...